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हमारे शब्द ब्रह्म स्वरूप

हमारे शब्द ब्रह्म स्वरूप

भारत के ऋषि मुनियों ने कण कण में ब्रह्म के वास को स्वीकार किया है । भारत के मनीषियों ने अक्षर को ब्रह्म की उपाधि से सुशोभित किया । लिखित शब्दों को अक्षर कहा ,अक्षर अर्थात अ क्षर जिसका क्षरण नहीं हो सकता, अथवा जिसका क्षय नहीं हो सकता। अक्षरों के अंदर उपस्थित ब्रह्म की इसी शक्ति को जागृत कर के ,शब्दों को मंत्र में परिवर्तित करके उस अक्षर को विलक्षण बना देने की कला ,हमारे भारतीय अध्यात्म में है अक्षर जो प्रत्येक जीव की जिह्वया पर  स्वयं सुशोभित होकर आधारित होता है। अक्षर को ब्रह्म की उपाधि देने के पीछे हमारी भारतीय संस्कृति और मनीषियों का यह आशय अवश्य रहा होगा कि हम  जिस शब्द जिस वर्ण का उच्चारण करें ,वह शुद्ध और सुसंस्कृत हो । अक्षर के उच्चारण के साथ हमारे मन में यह भावना रहे कि हमारे अक्षर से ना तो हम को स्वयं मानसिक क्लेश हो और हमारी बाणी से किसी  अन्य को भी मानसिक आघात ना पहुंचे । शब्दों की  सौम्यता से ही सुख शांति प्रस्फुटित होती है । हमारे शब्द अगर सीमित भी है पर अपने सुखद परिणामों से बहुमूल्य हो जाते हैं । हमें अपनी वाणी का प्रयोग ब्रह्म उपासक बनकर करना चाहिए ,हमारी संस्कृति मूर्तिपूजक है और हम से अपेक्षा की जाती है ,कि हमारे द्वारा पूजा करते समय ,हमारे आचार विचार शुद्ध एवं परिष्कृत हों, मन में शांति का वास हो और हम मानसिक रूप से पूजन में पूर्ण समर्पित हों, उचित उसी प्रकार शब्द को भी अक्षर को भी ब्रह्म स्वरूप समझकर अपनी वाणी को सदैव शुद्ध एवं  परिष्कृत रख सुख शांति का संचार करें। अपने सार्थक शब्द दूसरों को सार्थकता प्रदान करते हुए स्वयं अपने आप के लिए भी सार्थक होते हैं ।हमारे शब्द सहज और सरल हों ,हमारी कठोर और तीव्र वाणी दूसरों को पीडित करने के साथ साथ स्वयं को भी अशान्त करती है । वार्तालाप को  सरल शब्दों में  व्यापार की संज्ञा देना  गलत ना होगा  ।व्यापार में  आदान प्रदान  का व्यवहार होता है  हम एक निश्चित मुद्रा देकर  ,एक निश्चित वस्तु  ही खरीदते हैं  ,उसी प्रकार  हम   अपनी शब्द रूपी मुद्रा को जैसा खर्च करेंगे  उसी  के अनुकूल  ही हम  सामने वाले के शब्दों को प्राप्त करेंगे  । यह आदान-प्रदान का  व्यवहार व्यापार ही कहलाता है। हमेंएक उचितऔर सुगठित परिवेश का निर्माण करने के लिए,सबसे पहले अपने अक्षरों पर ध्यान देना होगा। ब्रह्म की संज्ञा प्राप्त किए हुए, हमारे अक्षरों का हमारी वाणी पर वास स्वयं ब्रह्म उपासना ही है।। कुछ भी बोलने से पहले हम अपने शब्दों को  स्थिरता प्रदान करते हुए शब्दों में धैर्य प्रदान करें। आचार्य  अभिनव गुप्त शब्द मात्र को भगवती अम्बा का साक्षात विग्रह (शरीर )स्वीकार करते हुए अपने एक भी कालांश को भगवती की स्तुति से रहित नहीं मानते। किसी भी शब्द को बोलते हुए, सुनते हुए या लिखते हुए उस आद्यशक्ति का ही आराधन करते हैं । शब्द मात्र उनका विग्रह है

तव च का किल न स्तुतिरम्बिके सकलशब्दमयीकिल ते तनुः।।

स्तुतिजपार्चनचिन्तनवर्जिता न खलु काचनकालकला$स्ति मे ।।

जया शर्मा प्रियंवदा

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1 Comments

Gunjan Kamal

09-Nov-2023 08:43 PM

👏👌🙏🏻

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